परहित सरिस धर्म नहीं भाई
प्रारूप -
प्रस्तावना
अर्थ एवं अभिप्राय
प्राचीन काल में परोपकार की भावना
वर्तमान में परोपकार की स्थिति
परोपकार का महत्व
निष्कर्ष
1 प्रस्तावना : मानव एक सामाजिक प्राणी है। इस पृथ्वी पर मानव ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। इस पृथ्वी पर जितनी भी प्राकृतिक वस्तुएं विद्यमान है, वे सभी परोपकार के लिए ही है। परोपकार के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। चंद्रमा, सूर्य, पेड़ पौधे, जलवायु ये सभी परोपकार के लिए ही है।
2 और अभिप्राय : परहित सरिस धर्म नहीं भाई का अर्थ है कि परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है या परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
3 प्राचीन काल में परोपकार की भावना : प्राचीन काल में परोपकार का बड़ा ही महत्व था। संत, ऋषि परोपकार को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। प्राचीन काल के ऐसे अनेक उदाहरण है जो परोपकार की भावना को उजागर करते हैं। जैसे समुद्र मंथन के दौरान निकलने वाले विष को शिव ने अपने कंठ में स्थान दिया। इसी प्रकार महात्मा गांधी ने अपना सारा जीवन दूसरों की सेवा और देश की आजादी के लिए समर्पित कर दिया था। परोपकार के ऐसे अनेक उदाहरण दयानंद, महर्षि, कर्ण, महाराजा हरिश्चंद्र आदि है।
4 वर्तमान में परोपकार की स्थिति : वर्तमान समय में परोपकार की भावना समाप्त सी हो गई है तथा सभी के अंदर स्वार्थ की भावना आ गई है। आज मनुष्य केवल स्वयं ही उन्नति करना चाहता है तथा अन्य को पीछे छोड़ देना चाहता है। यही कारण है कि आज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का दुश्मन बना हुआ है।
5 परोपकार का महत्व : परोपकार का अत्यधिक महत्व है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है -
परोपकाराय फलन्ति वृक्षा:, परोपकाराय वहन्ति नद्या:
परोपकाराय दुहन्ति गाव: परोपकारार्थं मिदं शरीरम्।
अर्थात् परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदिया परोपकार के लिए बहती है, गाय परोपकार के लिए दूध देती है अर्थात् यह शरीर भी परोपकार के लिए है।
6 निष्कर्ष : सभी तथ्यों व कारणों से यह कहा जा सकता है कि प्रकृति में केवल परोपकार का ही महत्व है। नदियां अपना जल स्वयं नहीं पीती, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं। यह सभी दूसरों के लिए ही है। यही परोपकार है।
परोपकाराय सतां विभूतय:।
अर्थात् सज्जनों की संपत्ति भलाई के लिए होती है।