कहां गए वे दिन
जब भी मैं गली में बच्चों को मग्न होकर खेलते देखती हूं तब मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं। सोचती हूं कि वे दिन कहां गए जब मैं भी इन्हीं बच्चों की तरह मुक्त हृदय से खेला करती थी। मां मुझे चॉकलेट देकर स्कूल भेजा करती थी। स्कूल में मैं घंटे अपने साथियों के साथ खेला करती थी। सुबह-सुबह अपने दोस्तों के साथ पार्क में जाकर मस्ती करते रहती थी। पता नहीं आज वे दिन कहां चले गए हैं। पढ़ाई का बोझ इतना बढ़ गया है कि खेलना ही भूल गई हूं। पहले मैं अपनी मां के हाथों से बनी रोटी के लिए अपने भाइयों से लड़ते रहती किंतु अब मां खाने के लिए बुलाती रहती, पर मैं किताबों से चिपकी ही रहती हूं। मां पुकारते-पुकारते थक जाती है किंतु मैं खाने के लिए डिनर टेबल पर नहीं आती। ये कैसी मजबूरी है?